पवित्रता, दृढता तथा उद्यम- ये तीनों गुण मैं एक साथ चाहता हूँ। (वि.स.४/३४७)
-स्वामी विवेकानन्द
§ भाग्य बहादुर और कर्मठ व्यक्ति का ही साथ देता है। पीछे मुडकर मत देखो आगे, अपार शक्ति, अपरिमित उत्साह, अमित साहस और निस्सीम धैर्य की आवश्यकता है- और तभी महत कार्य निष्पन्न किये जा सकते हैं। हमें पूरे विश्व को उद्दीप्त करना है। (वि.स.४/३५१)
-स्वामी विवेकानन्द
§ पवित्रता, धैर्य तथा प्रयत्न के द्वारा सारी बाधाएँ दूर हो जाती हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि महान कार्य सभी धीरे धीरे होते हैं। (वि.स.४/३५१)
-स्वामी विवेकानन्द
§ साहसी होकर काम करो। धीरज और स्थिरता से काम करना -- यही एक मार्ग है। आगे बढो और याद रखो धीरज, साहस, पवित्रता और अनवरत कर्म। जब तक तुम पवित्र होकर अपने उद्देश्य पर डटे रहोगे, तब तक तुम कभी निष्फल नहीं होओगे -- माँ तुम्हें कभी न छोडेगी और पूर्ण आशीर्वाद के तुम पात्र हो जाओगे। (वि.स.४/३५६)
-स्वामी विवेकानन्द
§ बच्चों, जब तक तुम लोगों को भगवान तथा गुरू में, भक्ति तथा सत्य में विश्वास रहेगा, तब तक कोई भी तुम्हें नुक़सान नहीं पहुँचा सकता। किन्तु इनमें से एक के भी नष्ट हो जाने पर परिणाम विपत्तिजनक है। (वि.स.४/३३९)
-स्वामी विवेकानन्द
§ महाशक्ति का तुममें संचार होगा -- कदापि भयभीत मत होना। पवित्र होओ, विश्वासी होओ, और आज्ञापालक होओ। (वि.स.४/३६१)
-स्वामी विवेकानन्द
§ बिना पाखण्डी और कायर बने सबको प्रसन्न रखो। पवित्रता और शक्ति के साथ अपने आदर्श पर दृढ रहो और फिर तुम्हारे सामने कैसी भी बाधाएँ क्यों न हों, कुछ समय बाद संसार तुमको मानेगा ही। (वि.स.४/३६२)
-स्वामी विवेकानन्द
§ धीरज रखो और मृत्युपर्यन्त विश्वासपात्र रहो। आपस में न लडो! रुपये - पैसे के व्यवहार में शुध्द भाव रखो। हम अभी महान कार्य करेंगे। जब तक तुममें ईमानदारी, भक्ति और विश्वास है, तब तक प्रत्येक कार्य में तुम्हे सफलता मिलेगी। (वि.स.४/३६८)
-स्वामी विवेकानन्द
§ जो पवित्र तथा साहसी है, वही जगत् में सब कुछ कर सकता है। माया-मोह से प्रभु सदा तुम्हारी रक्षा करें। मैं तुम्हारे साथ काम करने के लिए सदैव प्रस्तुत हूँ एवं हम लोग यदि स्वयं अपने मित्र रहें तो प्रभु भी हमारे लिए सैकडों मित्र भेजेंगे, आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः। (वि.स.४/२७६)
-स्वामी विवेकानन्द
§ ईर्ष्या तथा अंहकार को दूर कर दो -- संगठित होकर दूसरों के लिए कार्य करना सीखो। (वि.स.४/२८०)
-स्वामी विवेकानन्द
§ पूर्णतः निःस्वार्थ रहो, स्थिर रहो, और काम करो। एक बात और है। सबके सेवक बनो और दूसरों पर शासन करने का तनिक भी यत्न न करो, क्योंकि इससे ईर्ष्या उत्पन्न होगी और इससे हर चीज़ बर्बाद हो जायेगी। आगे बढो तुमने बहुत अच्छा काम किया है। हम अपने भीतर से ही सहायता लेंगे अन्य सहायता के लिए हम प्रतीक्षा नहीं करते। मेरे बच्चे, आत्मविशवास रखो, सच्चे और सहनशील बनो।(वि.स.४/२८४)
-स्वामी विवेकानन्द
§ यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खडे हो जाओगे, तो तुम्हे सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढेगा। यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले 'अहं' ही नाश कर डालो। (वि.स.४/२८५)
-स्वामी विवेकानन्द
§ पक्षपात ही सब अनर्थों का मूल है, यह न भूलना। अर्थात् यदि तुम किसी के प्रति अन्य की अपेक्षा अधिक प्रीति-प्रदर्शन करते हो, तो याद रखो उसीसे भविष्य में कलह का बिजारोपण होगा। (वि.स.४/३१२)
-स्वामी विवेकानन्द
§ यदि कोई तुम्हारे समीप अन्य किसी साथी की निन्दा करना चाहे, तो तुम उस ओर बिल्कुल ध्यान न दो। इन बातों को सुनना भी महान् पाप है, उससे भविष्य में विवाद का सूत्रपात होगा। (वि.स.४/३१३)
-स्वामी विवेकानन्द
§ गम्भीरता के साथ शिशु सरलता को मिलाओ। सबके साथ मेल से रहो। अहंकार के सब भाव छोड दो और साम्प्रदायिक विचारों को मन में न लाओ। व्यर्थ विवाद महापाप है। (वि.स.४/३१८)
-स्वामी विवेकानन्द
§ बच्चे, जब तक तुम्हारे हृदय में उत्साह एवं गुरू तथा ईश्वर में विश्वास- ये तीनों वस्तुएँ रहेंगी -- तब तक तुम्हें कोई भी दबा नहीं सकता। मैं दिनोदिन अपने हृदय में शक्ति के विकास का अनुभव कर रहा हूँ। हे साहसी बालकों, कार्य करते रहो। (वि.स.४/३३२)
-स्वामी विवेकानन्द
§ किसी को उसकी योजनाओं में हतोत्साह नहीं करना चाहिए। आलोचना की प्रवृत्ति का पूर्णतः परित्याग कर दो। जब तक वे सही मार्ग पर अग्रेसर हो रहे हैं; तब तक उन्के कार्य में सहायता करो; और जब कभी तुमको उनके कार्य में कोई ग़लती नज़र आये, तो नम्रतापूर्वक ग़लती के प्रति उनको सजग कर दो। एक दूसरे की आलोचना ही सब दोषों की जड है। किसी भी संगठन को विनष्ट करने में इसका बहुत बडा हाथ है। (वि.स.४/३१५)
-स्वामी विवेकानन्द
§ किसी बात से तुम उत्साहहीन न होओ; जब तक ईश्वर की कृपा हमारे ऊपर है, कौन इस पृथ्वी पर हमारी उपेक्षा कर सकता है? यदि तुम अपनी अन्तिम साँस भी ले रहे हो तो भी न डरना। सिंह की शूरता और पुष्प की कोमलता के साथ काम करते रहो। (वि.स. ४/३२०)
-स्वामी विवेकानन्द
§ क्या तुम नहीं अनुभव करते कि दूसरों के ऊपर निर्भर रहना बुध्दिमानी नहीं है। बुध्दिमान व्यक्ति को अपने ही पैरों पर दृढता पूर्वक खडा होकर कार्य करना चहिए। धीरे धीरे सब कुछ ठीक हो जाएगा। (वि.स. ४/३२८)
-स्वामी विवेकानन्द
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